Tuesday, February 8, 2011

चोटी की ललक

समय को बाँधने वाला बाँध चाहिए,
वो मीठी सी थकान चाहिए.
रुको, ठेह्रो, बैठो ज़रा
इन नजारों को देखने वाला इंसान चाहिए

शिखर की ललक है तुम्हे
अस्तित्व विहीन खतरों की भनक है तुम्हे
सजीव कल्पनाओं से कोई वास्ता नहीं
मुर्दों की दौड़ में पहला स्थान चाहिए

खिलते फूलों की पुकार नहीं
डूबते सूरज के आखिरी लालिमा की दरकार नहीं
हमराहियों की ठिठोलियाँ नहीं
चाहिए तुम्हे तो बस शिखर का आधार चाहिए

चुभती हैं तुम्हे वोह साथियों के संग की यादें
पर भूल कैसे सकते हो उम्मीदों पर खरे उतरने के वादे
उहापोह से लथपथ, पीछे छूट गए तुम्हारे साए
टूटे हुए, चिता पर लदे हुए तुम्हारे इरादे

दिखने लगे सब, छटे घना कुहरा सारा
ले लो सांस, धैर्य धरो, ये सब है तुम्हारा
सूखने दो पसीने को, होने दो धडकनों को मद्धम
यहीं तो है वोह जिसकी खोज में भटक रहे तुम और हम

क्या ढूंढते हो चोटी पर
जो साथियों के संग में नहीं
क्षितिज पर सागर से मिले बिना
ऊंचा आसमान भी पूरा नहीं



1 comment:

  1. top notch man...its like a fierce launch on one's own capabilities...and just feel that you would have had an inconsistent heartbeat during the writing of this piece..
    anyway chk this out..http://chakreshblog.blogspot.com/2010/01/blog-post_19.html

    a friend from school...is writing well.

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